— Friedrich Nietzsche
Tuesday, November 30, 2010
कहानियां
कहानियाँ थी.
खूबसूरत थी
तब तक
जब तक
सिर्फ कहानियाँ थी.
एक दिन मुझको क़त्ल किया
मेरी स्याही ने
जब रगों में दौड़ने लगी.
उस दिन मुझको बहका-बहका
और किस्सों का रंग बदलते
तुमने भी तो देखा होगा.
Thursday, November 25, 2010
सोवियत राष्ट्रपति कालिनिन के नाम एक १३ वर्षीय मजदूर बालक द्वारा १९३३ में लिखा गया पत्र
प्रिय दादाजी कालिनिन ...
मेरा परिवार बड़ा है, चार बच्चे हैं. हमारे पिता अब नहीं हैं, वे मजदूरो के लिए लड़ते हुए मारे गए थे ...
और मेरी माँ ... बीमार हैं. ....मैं बहुत पढ़ना चाहता हूँ, पर स्कूल नहीं जा सकता. मेरे पास पुराने जूते थे लेकिन अब वो इतने फट चुके हैं की कोई उनकी मरम्मत नहीं कर सकता. मेरी माँ बीमार हैं, हमारे पास न तो पैसा है न तो रोटी; पर मैं पढ़ना बहुत चाहता हूँ. ..... हमारे पास पढ़ने, पढ़ने और बस पढ़ने की जिम्मेदारी है. व्लादिमीर इल्यीच लेनिन ने यही कहा है. पर मुझे स्कूल जाना छोडना पड़ेगा. हमारा कोई भी रिश्तेदार नहीं हैं, कोई भी हमारी मदद नहीं कर सकता, इसलिए मुझे फैक्ट्री में काम करना पड़ेगा ताकि मेरा परिवार भूखो मरने से बच जाये. प्रिय दादाजी मैं १३ साल का हूँ, पढाई में अव्वल आता हूँ और मेरी कोई खराब रिपोर्ट नहीं है. मैं पाचवी कक्षा में पढता हूँ.....
Tuesday, November 23, 2010
तीसरी किताब
मध्य-प्रदेश से आते हुए ट्रेन में एक युवक को देखा, उसके पास तीन किताबे थी. दो रखी हुई थी बर्थ पर और एक वो सामने लेटा हुआ बड़ी तल्लीनता से पढ़ रहा था. रखी हुई किताबो का नाम नहीं दिख रहा था लेकिन जो वो पढ़ रहा था वो सामने था.
किताब का नाम था-
“हितोपदेश”
ये किताब ट्रेन और बसों की ‘बेस्ट सेलर’ है. आज तक मैंने कभी पढ़ी नहीं, खरीदने का दुस्साहस भी नहीं किया. मगर मैंने सोचा की अगर मुफ्त में मिल जाये तो आज जरा एक दो कहानियाँ पढ़ ही लू. लेकिन उसने मौका नहीं दिया, वो पढता रहा.
मैं भी अपनी किताब पढता रहा और सो गया.
मैं जब सुबह उठा तो देखा वो उसी तरह लेटे हुए कोई दूसरी किताब पढ़ रहा था.
मैंने नाम पढ़ने की कोशिश की,
लिखा था-
“बलात्कारी भूत” (कवर भी काफी शानदार था )
बड़ी मुश्किल से मैंने अपने आप को रोका वरना उसके पैरों में गिर जाता.
पता नहीं ये रात वाली किताब का असर था या वाकई उसके बहुआयामी व्यक्तित्व का कमाल.
बनारस आ गया, मैंने निकलते वक्त उसे अलविदा मुस्कान देने की सोची मगर उसने मेरी ओर नहीं देखा, वो अभी भी पढ़ रहा था.
मैं अब तक सोंच रहा हूँ की भला उसकी तीसरी किताब का क्या नाम रहा होगा ??
Sunday, November 21, 2010
जरा सी याद
लेकिन उससे जादा दुःख होता है तब ...
जब दुखी होने बैठता हूँ
और वो ठीक से याद नहीं आते !
भूल जाती है चेहरे की कोई खास लकीर,
और टुकडो में मिलता है पूरा शरीर,
वो एहसास भटकता है
जो उनको छू कर हुआ करता था,
फिर दुःख होता है,
लेकिन इस दुःख से भी मन नहीं भरता,
खुद पर,
खुद की बेपवाही पर गुस्सा आता हैं,
जाने कहाँ गिरा दी मैंने
वो जरा सी याद,
जो प्यार से रुला कर चली जाया करती थी,
दुःख तो आज भी होता है,
लेकिन उससे जादा दुःख होता है तब...
जब किसी पुरानी तस्वीर के साथ,
बड़ी मुश्किल से समय निकाल कर
मैं दुखी होने बैठता हूँ,
और वो ठीक से याद नहीं आते !
Monday, November 15, 2010
सुर-असुर !
सही कहा तुमने,
मैं जन्म से हिंदू हूँ !
लेकिन कर्म से केवल मनुष्य,
तुम्हारे सारे रिवाज़
मेरी परिभाषा से अलग हैं.
और न जाने क्यों
ऐसा लगता है
की मैं बेहतर हूँ.
मंदिर जाता हूँ
वास्तुकला की प्रशंसा करता हूँ
भक्तिभाव और घंटे की ध्वनि से
परहेज भी नहीं परन्तु
श्रद्धा और आस्था का भ्रम भी नहीं.
खुद को कुचलती भीड़ पर हँसता हूँ
जी भर के कोसता हूँ.
रात्रि जागरण कर के
रामचरित मानस गा लेता हूँ.
लोग कहते है-
“बड़ा धार्मिक लड़का है”
लेकिन मैं नवरात्री में अंडे खा लेता हूँ.
चेखव, कृष्ण, विवेकानंद,
मार्क्स, गाँधी और ग़ालिब.
मेरे कमरे में सबके लिए जगह है.
लेकिन ‘कल्पना के किसी पुत्र’ के लिए
नहीं है दिल का कोई भी कोना.
अहमियत नहीं रखता मेरे लिए
किसी भी जगह
किसी भी मंदिर या मस्जिद का
होना या न होना.
हर फुर्सत में दोस्तों के साथ
गंगा की सीढियों पर सोता हूँ
चौराहों पर तकलीफ ढूढता हूँ
और बिना वजह रोता हूँ
शराब पीने के बाद
बिना समझे
किसी भी मुद्दे पर
कुछ भी बोंल देता हूँ.
परम, पूज्य, पुण्य, परमात्मा
सबके ढक्कन खोल देता हूँ.
फिर भी
सबको मिला के रखता हूँ.
हर रूप में ढल जाता हूँ
क्योकि
सही गलत का जादा फर्क नहीं करता
नैतिकता बड़ी लचीली है
और जरुरत के वक्त
नीयत हमेशा गीली है.
मुझे लगता है
अगर मैं जन्म से मुसलमान होता,
ईसाई होता या कुछ और,
या कुछ भी नहीं होता
तो भी ऐसा ही होता जैसा हूँ.
और तुम भी हमेशा तुम ही होते
हर परदे के पीछे.
हो सकता है हम दोनों
समाजीकरण की
सफलता और असफलता
के प्रयोग हों
इसलिए कभी कभी रौशनी में
तुम भी मुझे
सताते हुए कम
सताए हुए जादा दिखते हो
तुम भी इतने बुरे नहीं हो
अक्सर मुझे पसंद भी हो
लेकिन फिर भी
न जाने क्यों
ऐसा लगता है
की मैं ही बेहतर हूँ.
Saturday, November 13, 2010
“देवभक्ति”
एक शहर की बात है. शहर में गणेशोत्सव बड़े धूम से मनाया जाता है. प्रथा कुछ ऐसी चल गयी है की हर जाति के लोग अपने अलग गणेश जी रखते है. इस तरह ब्राम्हणों के अलग गणेश होते है, अग्रवालो के अलग, तेलियो के अलग, कुम्हारों के अलग. पचीस-तीस तरह के गणेशोत्सव होते है, और नौ-दस दिनों तक खूब भजन-कीर्तन, पूजा-स्तुति, आरती, गायन-वादन होते है. आखिरी दिन गणेश विसर्जन के लिए जो जुलुस निकलता है, उसमे सबसे आगे ब्राम्हणों के गणेश होते है.
इस साल ब्राम्हणों के गणेश जी का रथ उठने में जरा देर हो गयी. इसलिए तेलियो के गणेश जी आगे हो गए.
जब यह बात ब्राम्हणों को मालूम हुई, तो वे बड़े क्रोधित हुए.
बोले, “ तेलियो के गणेश की ऐसी-तैसी. हमारा गणेश आगे जायेगा.”
Friday, November 12, 2010
जॉन लेनन
“We're more popular than Jesus Christ now. I don't know which will go first. Rock and roll or Christianity.”
- Lennon
John Winston Ono Lennon, (9 October 1940 – 8 December 1980) was an English musician and singer-songwriter who rose to worldwide fame as one of the founding members of The Beatles and, with Paul McCartney, formed one of the most successful songwriting partnerships of the 20th century.
Lennon revealed a rebellious nature and acerbic wit in his music, his writing, his drawings, on film, and in interviews, and he became controversial through his peace activism. He moved to New York City in 1971, where his criticism of the Vietnam War resulted in a lengthy attempt by Richard Nixon's administration to deport him, while his songs were adapted as anthems by the anti-war movement. Lennon disengaged himself from the music business in 1975 to devote time to his family, but reemerged in 1980 with a new album, Double Fantasy. He was murdered three weeks after its release.
“Imagine all the people” by John Lennon
When asked about the song in one of his last interviews, Lennon declared "Imagine" to be as good as anything he had written with the Beatles. The song is one of three Lennon solo songs, along with "Instant Karma!" and "Give Peace a Chance", in the Rock and Roll Hall of Fame's 500 Songs that Shaped Rock and Roll. Rolling Stone ranked "Imagine" the 3rd greatest song of all time in their editorial The 500 Greatest Songs of All Time.
The lyrical content of "Imagine" was "just what John believed — that we are all one country, one world, one people. He wanted to get that idea out."
Imagine there's no Heaven
It's easy if you try
No hell below us
Above us only sky
Imagine all the people
Living for today
Imagine there's no countries
It isn't hard to do
Nothing to kill or die for
And no religion too
Imagine all the people
Living life in peace
You may say that I'm a dreamer
But I'm not the only one
I hope someday you'll join us
And the world will be as one
Imagine no possessions
I wonder if you can
No need for greed or hunger
A brotherhood of man
Imagine all the people
Sharing all the world
You may say that I'm a dreamer
But I'm not the only one
I hope someday you'll join us
And the world will live as one
GIVE PEACE A CHANCE by John Lennon
"Give Peace a Chance" is a 1969 single by the Plastic Ono Band that became an anthem of the American anti-war movement of the 1960s. The song was written during Lennon's ‘Bed-In’ honeymoon: when asked by a reporter what he was trying to achieve by staying in bed, Lennon answered spontaneously "All we are saying is give peace a chance"; Lennon liked the phrase and set it to music for the song.
The song quickly became the anthem of the anti Vietnam-war movement, and was sung by half a million demonstrators in Washington, D.C. at the Vietnam Moratorium Day, on 15 October 1969. They were led by the renowned folk singer Pete Seeger, who interspersed phrases like, "Are you listening, Nixon?" and "Are you listening, Agnew?", between the choruses of protesters singing, "All we are saying ... is give peace a chance".
Ev'rybody's talkin' 'bout
Bagism, Shagism, Dragism, Madism, Ragism, Tagism
This-ism, that-ism, ism ism ism
All we are saying is give peace a chance
All we are saying is give peace a chance
(C'mon)
Ev'rybody's talkin' 'bout
Minister, Sinister, Banisters and Canisters,
Bishops, Fishops, Rabbis, and Pop Eyes, Bye bye, Bye byes
All we are saying is give peace a chance
All we are saying is give peace a chance
(Let me tell you now)
Ev'rybody's talkin' 'bout
Revolution, Evolution, Masturbation, Flagellation, Regulation,
Integrations, mediations, United Nations, congratulations
All we are saying is give peace a chance
All we are saying is give peace a chance
Ev'rybody's talkin' 'bout
John and Yoko, Timmy Leary, Rosemary,
Tommy Smothers, Bobby Dylan, Tommy Cooper,
Derek Taylor, Norman Mailer, Alan Ginsberg, Hare Krishna
Hare Hare Krishna
All we are saying is give peace a chance
All we are saying is give peace a chance
Tuesday, September 14, 2010
‘कुछ और’ बन जाने का डर
कुछ समय पहले मैं एक संस्था में युवाओ को इंग्लिश पढाया करता था, वहाँ और भी कोर्स थे रोजगार के लिए, कंप्यूटर डिज़ाइनिंग भी था जो मुझे भी बहुत पसंद था. उसे पढाता था सुब्रोतो, बहुत सीधा और सच्चा इंसान, और बहुत अच्छा दोस्त भी. थोड़ी बहुत जानकारी मुझे भी थी और ड्राइंग ठीक है मेरी तो जब भी समय मिले मैं वही होता था, खुद भी सीखता था और सुब्रोतो की मदद भी करता था. उस संस्था में अध्यापको के लिए बड़ी चुनौती ये भी थी की सभी छात्रों के मन में एक अच्छी छवि बनाये रखे और उन्हें हमेशा प्रोत्साहित करे जीवन में कुछ करने के लिए. चुनौती इसलिए थी क्योकि जादातर छात्र 15-25 वर्ष के थे, इतने तेज, बेबाक और हाजिर जवाब की पूछिए मत. मज़ाक का कोई मौका जाने नहीं देते थे और ये ख्याल रखना होता था की कही खुद का मज़ाक न बन जाये. अजब-गजब सवाल भी कर देते थे,
“सर, पर्सनैलिटी डेवेलोपमेंट वाली मैडम बालों को सलीके से रखने पर इतना पाठ पढ़ाती है, आमिर खान तो टीचर बना था ‘तारे ज़मीन पर’ में लेकिन उसने मुर्गे जैसे बाल कैसे रखे थे?”
एक दिन सुब्रोतो मेरे पास आया, बड़ा परेशान दिख रहा था.
मैंने कहा, “क्या हुआ बाबु मोशाय?”
“यार तुम्हारी मदद चहिये, क्लास बीच में छोड़ के आया हू, अभी चलो जरा.”
“बात क्या है, बताओ तो सही”
“अरे वो फोटोशोप की क्लास दे रहा हू, असाइनमेंट बनानी है उनको, एक लिपस्टिक बनाना है फोटोशोप का प्रयोग कर के”
“तो?”
“अरे तो मुझे पहले लिपस्टिक बनानी है बोर्ड पर उसके बाद वो लोग कॉपी करेंगे”
“तो बना दो न, इसमें कौन सी बड़ी बात है इसके लिए मेरी क्या जरुरत है?”
“अरे यार मेरा ड्राइंग उतना सही नहीं है, चलो तुम बना दो”
“देख रहे हो रिपोर्ट लिख रहा हू, थोडा गलत ही बना दो यार, उनको पता है तुम पिकासो नहीं हो”
उस समय सुब्रोतो ने परेशानी और गुस्से से ऐसे देखा की मुझे लगा मामला गंभीर है. फिर झुझलाकर बोला, “अरे इतना आसान होता तो क्यों आता, तुम समझ नहीं रहे हो जरा किनारे आओ बताता हूँ”
वहा बैठे बाकी लोग भी कौतुहल से देखने लगे, मैं भी समझ नहीं पा रहा था लेकिन दूसरे कमरे में चला आया सुब्रोतो के साथ.
“हाँ, अब तो बताओ”
“अरे मैं कई बार कोशिश कर चुका हू, लेकिन साला हर बार ‘कुछ और’ बन जा रहा है”
“क्या बन जा रहा है?”
“अरे ‘वो’ बन जा रहा है”
अब मेरे सब्र का बांध भी टूटने लगा.
“अबे क्या बोंल रहे हो यार, क्या बन जा रहा है? ‘वो’ क्या ?“
“अरे लिपस्टिक बनाते बनाते क्या बन सकता है?”
“अबे क्या बन सकता है, साले क्यों पहेली बुझा रहे हो?”
“अरे वही तो बता रहा हू इतनी देर से की ‘कुछ और’ बन जा रहा है, ‘वो’ बन जा रहा है”
मैं अपनी आवाज नीची नहीं रख पाया इस बार और जोर से बोला,
“अबे साले बोंल के क्यों नहीं बताते, क्या बन जा रहा है?”
और फिर सुब्रोतो मुझसे भी जादा तेज गुस्से में बोला,
“** बन जा रहा है”
कमरे में थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया. पहले मैं स्तब्ध रह गया और उसके बाद इतनी जोर की हँसी आई की लोट-पोट हो गया और दो मिनट तक हँसता ही रहा.
“साले अब हँसते ही रहोगे या मदद भी करोगे?”
“अबे तुमको बोलना था न की मैं इसे नहीं बनाऊंगा बोर्ड पर, तुम लोग कॉपी में बना लो जैसे मर्जी”
“अरे जब मैं बना रहा था तो उनमे से कुछ हँसने लगे तब मैंने जल्दी से मिटा दिया, अब बिना बनवाए नहीं मानेगे”
“अच्छा मुझे कोशिश कर के देखने दो”
अब तो मुझे भी डर लगने लगा. समस्या गंभीर थी. मैंने वही एक कागज पर कोशिश की. लेकिन ये ‘कुछ और’ बन जाने का डर इतना जादा हावी हो गया की मैं जितनी बार बनाऊ गलत हो जाये. और सुब्रोतो तपाक से बोले,
“ देखो देखो तुम भी ‘वही’ बना रहे हो, मेरे ऊपर हँस रहे थे, अब बताओ”
“अबे दिमाग का दही मत करो, कोशिश करने दो, तुमने ही बोंल-बोंल के भर दिया है साले मेरी गलती नहीं है”
लेकिन बहुत कोशिश करने के बाद भी मेरे अंदर इतना आत्मविश्वास नहीं आया की मैं बोर्ड पर लिपस्टिक बना सकू. हम दोनों ‘कुछ और’ बन जाने का जोखिम नहीं उठा सके और छात्रों के लाख बोलने के बावजूद उनको सुब्रोतो ने किसी तरह डाट-डपट के दूसरा कोई असाइनमेंट कराया. छात्र काफी मायूस हुए.
काफी दिनों बाद अचानक फिर से ये बात याद आई तो एहसास हुआ की ये ‘कुछ और’ बन जाने का डर तो हमेशा से ही मेरे पीछे रहा है. मैं ही नहीं मेरे सारे दोस्त इसी से लड़ते रहे है और आज भी संघर्ष कर रहे है की कही जो बनना चाहते थे वो न बन के ‘कुछ और’ न बन जाये. हम में से बहुत लोगो ने इस डर के कारण बहुत दिनों तक रोक के रखा अपने आप को, और कोई कदम नहीं उठाया. लेकिन जब देर सवेर कुछ मित्रों ने हिम्मत दिखाई तो सफलता मिली और एहसास हुआ की ये डर किसी भी सपने से जादा ताकतवर नहीं हो सकता है.
कल मैंने सुब्रोतो को फोन किया और बोला,
“सुब्रोतो, मुझे लगता है उस दिन मैं अगर मैं कोशिश करता तो बोर्ड पर ‘कुछ और’ नहीं बनता. वो बनता जो मैं बनाना चाहता था”
Tuesday, August 31, 2010
कितनी तन्हाइयां !!!!
जिस पे तुम थे कभी,
और मेरे साथ थीं,
कितनी परछाइयाँ.
प्याली ये चाय की,
इसमें डूबी हुई,
कितनी मासूम थीं,
दिल की गहराइयाँ.
आज फिर रात में,
फिर किसी बात में,
तुम मिले और मिलीं,
कितनी तन्हाइयां.
Sunday, August 8, 2010
मुल्ला नसीरुद्दीन
मुल्ला नसीरुद्दीन का नाम मैंने ओशो की कहानियो में सुना था और बहुत मजे लेके पढता था. लेकिन कभी मिला नहीं था. कुछ दिन पहले मुझे वाराणसी से १७ किलोमीटर दूर एक गांव में मुल्ला जी मिले और ये कही से कम दिलचस्प नहीं थे.
ये तस्वीर मैंने ही खीची और ये बता सकता हू की इन चार लोगो में से सबसे अमीर ये जमीन पे बैठे मुल्ला जी है. ये जमीन इन्ही की है और अभी कुछ दिन पहले करीब २० - २२ लाख नगद लेके इन्होने अपनी एक जमीन का सौदा किया है. जब इनसे मिला तो यकीं नहीं हुआ..तब ये मुह में ५०२ पताका बीडी लेके खेत में इसी रूप में काम कर रहे थे.
मुल्ला जी के पास ऐसे ८ पैक्स मसल्स है की गजिनी भी हथियार डाल दे. बात करते हुए एक मिनट में दो कहानिया और तीन मुहावरे पढ़ देते है, गजब के दार्शनिक भी है. अफ़सोस इनसे जादा देर बात नहीं हो पाई क्योकि इनका एक जिद्दी मुर्गा भी है जो इनकी बहु के ऊपर हमला कर रहा था और जब मुल्ला जी डंडा लेके उसके पीछे भागे तब जाके माना.
मुल्ला जी के पोते से भी मिला..४ साल का प्यारा बच्चा बकरियों के साथ खेल रहा था. उसका नाम पूछा तो पास खड़े एक लड़के ने कहा,"साईकिल"
मैंने कहा, 'ये कैसा नाम है किसने रखा?"
"इसके अब्बा ने, वो जो खेत में काम कर रहे है"
"उनका नाम क्या है? मोटर-साईकिल?"
'नहीं, उनका नाम तो अहमद है"
बात मेरी समझ में नहीं आई तो जाते जाते मुल्ला नसीरुद्दीन से मैंने पूछ ही लिया,
"ये इस प्यारे से बच्चे का नाम साईकिल किसने रख दिया?"
इतने पर मुल्ला जी यो भड़के की पूछो नहीं,
"किस हरामजादे ने बताया आपको इसका नाम?"
मैंने उस बड़े लड़के की तरफ इशारा करना चाहा लेकिन वो पहले ही भाग चूका था.
डरते डरते मैंने कहा, "जी मैंने तो बच्चे से भी पूछा था, वो भी यही नाम बता रहा था."
इसपर मुल्ला जी थोडा नरम होके बोले,
"इसका नाम शकील है, शकील अहमद !!! ये साले गाव के लड़के मजाक में नाम बिगाड़ते है."
तो मैं इस तरह सस्ते में ही छूट गया,
उम्मीद है मुल्ला नसीरुद्दीन से फिर मुलाकात होगी !!
Thursday, August 5, 2010
दाता की क्या जात ???
कनाट प्लेस पर रात के ९ बजे मैं ऑटो की राह देख रहा था की तभी एक बूढी माँ मेरे पास आई और बोली, “ बेटा तुम करोड़पति हो कुछ पैसे दे दो खाने को , भूख लगी है”
समाज कार्य का ये भी एक उसूल है की जहा तक हो पैसे की मदद करने से बचना चाहिए लेकिन ५ मिनट पहले मुहे बड़ी जोरो की भूख लगी थी और बड़ी मुश्किल से सस्ता रेस्तौरां खोज कर मैं खाना खा के आया था तो मुझे लगा की मैं अगर आज २० रूपये दे दू तो कोई बड़ा अपराध नहीं है.
लेकिन आदतानुसार पैसे देने के पहले मैंने उस बूढी माँ से और भी बाते की.
“कहा से आई हो?”
“करोल बाग से”
“क्यों?”
“मेरे घुटने में दर्द है यह सुचेता कृपलानी हॉस्पिटल में फ्री में इलाज होता है”
“वापस कैसे जाओगी?”
“बस से”
“किराया?”
“बस वाला नहीं लेता”
“कुछ काम-धाम क्यों नहीं करती पैसे मांगने के बदले.”
“बर्तन साफ़ करती थी मगर वह पैसे नहीं देते थे”
“घर में कौन कौन है “
“कोई नहीं, पंडित जी मर गए और कोई बच्चा नहीं है”
“कितने दिन से मांग के खा रही हो?”
“सात साल से”
“आगे कैसे चलेगा काम ?”
“इसी तरह मांग के “
“जब शरीर इस लायक नहीं होगा की मांगने आ सको सड़क तक ...फिर क्या करोगी?”
“मर जाउंगी महक कर और क्या”
“अच्छा एक बात बताओ अम्मा”
“बेटा तुम करोड़पति हो पैसे दे दो”
“अम्मा मैं करोडपति नहीं हू, लेकिन पैसे दे दूँगा एक और बात का जवाब दो”
“बेटा पैसे दो नहीं तो मैं जाऊ दूसरे के पास मांगने?”
“अरे मैंने बोला है तो मैं दूँगा परेशां मत हो.....तुम मुझे ये बताओ अम्मा की आज तक कभी किसी भी संस्था ने तुम्हारी मदद करने की कोशिश नहीं की? वह जहा बूढ़े लोग साथ रहते है? इतने सालो में कोई तो आया होगा मदद करने, सरकार ने कई सेंटर खोले है लोगो की मदद करने के लिए वह क्यों नहीं गयी ?”
“हा पता है, लेकिन वहा नहीं रहूंगी मैं”
“क्यों किसी ने तुम्हारी मदद करने की कोशिश नहीं की ? या वह अच्छा व्यवहार नहीं करते ?”
“नहीं ऐसी बात नहीं है, कई बार लोगो ने मुझे रखने की कोशिश की मगर वहा नहीं रह सकती मैं”
“क्यों नहीं रह सकती?
“वह सब चमार सियार साथ में रहते है”
“मतलब??”
“अरे मैं पंडित हू ना, कैसे रह सकती हू मैं किसी चमार के साथ”यहाँ थोड़ी देर के लिए संभालना पड़ा पाने आप को इस बात को पचाने के लिए. इसके बाद मैंने अम्मा से पूछा,
“अच्छा तो आप पंडित हैं और वह सब जात के लोग एक साथ रहते है तो इसलिए आप उनके साथ नहीं रह सकती”
“हाँ”
“धर्म खत्म हो जायेगा?”
“हाँ , बेटा तुम पैसे दोगे की नहीं?”
“मैं तो दूँगा लेकिन अगर एक चमार पैसे देगा तो आप लेंगी?”
“ बिलकुल नहीं?”
“ओह ....लेकिन मैं भी तो एक चमार हू अम्मा...अब मैं कैसे दू पैसे आपको, आपका धर्म खतम हो जायेगा”
“नहीं तुम चमार नहीं हो .”
“ अब चाहे मानो या न मानो..,,मैं चमार ही हू. आपको मुझसे पैसे नहीं लेने चाहिए”
“हम तो देख के पहचान लेते है, तुम चमार नहीं हो”
“पैसे लेने है तो ले लो अम्मा लेकिन इतना जान लो की एक चमार के हाथो से पैसे ले रही हो तुम्हारा धर्म खत्म हो जायेगा”
इतना सुनने के बाद बूढी अम्मा ने मेरे हाथ से दस रु. का नोट खीच लिया और चल पड़ी...लेकिन चलते चलते बोली,
“मुझे पता है तुम चमार नहीं हो......तुम पंडित हो”
Friday, July 30, 2010
Today I felt a terrible pain in my soul. I am getting closer and closer to the ruthless realities of our existence.
One of our CanKids Sumit who was suffering from Blood Cancer finally died in horrible pain. I got the information when his father came to us and started crying. We went to Emergency and the chaotic run started.
The doctor in Emergency told us that we cannot take the body right away as we need to get necessary papers made. The father said that he will like to take the body back to his village in Bihar. But he cannot afford the cost of the Ambulance.
I went to the Social Service Unit for help. AIIMS has no such facility. We convinced the parents to cremate the body in Delhi.
The dead body of 5 years old Sumit was being wrapped and I couldn’t get courage to look at the face as his father already told me that the eyes literally came out at the time of death. He said that now he doesn’t have a single rupee left and he is all under debt. His cute little 2 years old daughter was smiling through all this when he told me that her bone marrow was also taken twice to save his brother. One of our Social Worker started crying and I felt a lump in my throat. I went back to the main cancer unit and told the parents to wait for the formalities to be done.
Half an hour later he came and told us that the body has been sent to Mortuary and we can get body only after 2 hours. I sent them to home to take rest & went for my ward visit. When I came back it was raining heavily and the father was waiting all drenched in water. He told us that the Mortuary refused to give body as the doctor has made it a Medico-Legal case and now the police will handle the issue.
I went to Emergency to talk to doctor and he said that the patient was brought dead so he is just following the rules. Though I believed that Sumit was alive when he came, but I didn’t say anything. I went back to the father and explained the complications of a democratic hospital.
I went to the Mortuary and requested for the dead body. The guy in-charge was happily sitting in the royal posture keeping his legs mounted on the mortuary files. He refused and told us that all the routes to get the dead body go through the Police Station.
I went to the AIIMS police station with the parents. Six constables were playing cards sitting on a big table. Others were religiously following the game. One of the half-naked police men told me that I must make a request to the doctor to change the case into non-legal.
We went back to Emergency. Doctor refused to so anything.
We went back to Social Service Unit. The Medical Social Service Officer was also helpless.
We went back to Police Station and an omniscient Police man said that he already knew that we will come back. I didn’t waste time in asking him that why he didn’t enlightened us and asked for the final solution. We were told that the matter had been reported to Sarojini Nagar Police Station so now we will have to go there.
We went to SN Police Station. To my surprise, here the Policemen behaved much nicely and politely explained their lengthy procedure. Sumit’s father couldn’t write anything with his shaking hands so I had to write an application on his behalf mentioning the name, age & address of his son almost 5 times as the constable was instructing me. Then the head constable wrote two more testimonials and all papers were signed up. I was little relived as he told me that the Post-mortem can be avoided now.
Finally we were told that now after just one more signature we will get the final paper. Sumit’s father went to some other office with a constable on the bike and I waited in the Police station.
After 1.5 hours they came back. The constable told us that the concerned authority is not present so we will have to come again tomorrow to the Police Station.
So finally we had to leave Sumit’s body in the Mortuary for the night. And I don’t know how many more steps a dejected father will have to take to get his son’s dead body tomorrow.
May be this was not enough for the day. When I went in the cancer ward I found another 4 year boy Sidhhant who is struggling to survive. His thin body was connected with so many tubes & wires surrounded with all kinds of monitors. We talked to his father and tried to give many useless logics to not feel sad. During all our conversation, every two minutes a machine was making warning signal and the brother of the patient was trying to adjust the oxygen cap. I could see the heart beat of the child pushing out every time from his skin. Finally we had to go out in the gallery where we tried to know if the father has the idea that his son has a very feeble chance to recover. He could say nothing and tried to stop his tears. I felt that the next moment we will cry together. Suddenly we heard the group of paramedical staff laughing together in full volume who were busy sharing a joke few moments ago. This alien sound departed us for the day and I kept thinking that how I will prepare myself for the next day. I am not sure how our little Sidhhant will bear his being.
Somehow I had my dinner tonight and I tried not to think about all this. But
I couldn’t stop thinking about the boy whom I saw the other day at the Pediatric OPD. This little cancer patient tried to commit suicide by throwing himself out of the DTC bus while coming to AIIMS with his father. Our Psychologist was trying to talk to him and he refused to have even an eye contact. I can still recall his life-less eyes struggling between a hair-less skull and a ruthless green mask.
It is pain all over. To live is to suffer????
Monday, July 5, 2010
जातिः हरिशंकर परसाई की कहानी
....................................................................................
कारखाना खुला, कर्मचारियों के लिए बस्ती बन गई। ठाकुरपुरा से ठाकुर साहब और ब्राह्मणपुरा से पंडित जी कारखाने में काम करने लगे और पास-पास के ब्लॉक में रहने लगे।
ठाकुर साहब का लड़का और पंडित जी की लड़की जवान थी। उनमें पहचान हुई। पहचान इतनी बढ़ी कि शादी करने को तैयार हो गए। जब प्रस्ताव उठा, तो पंडित जी ने कहा, 'ऐसा कभी हो सकता है? ब्राह्मण की लड़की ठाकुर से शादी करे! जाति चली जाएगी।'
ठाकुर साहब ने भी कहा, 'लड़के-लड़की बड़े हैं, पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं। उन्हें शादी कर लेने दो। अगर शादी नहीं हुई, तो वे चोरी-छिपे मिलेंगे और तब जो उनका संबंध होगा, वह व्यभिचार कहा जाएगा।'
इस पर ठाकुर साहब और पंडित जी ने कहा, 'होने दो। व्यभिचार से जाति नहीं जाती, शादी से जाती है।' ...............................................................................
Thursday, June 10, 2010
दिनचर्या (धूमिल की कविता )
हम बुझी हुई बत्तियों को
इकट्ठा करेंगे और
आपस में बांट लेंगे.
दुपहर जब कहीं बर्फ नहीं होगी
और न झड़ती हुई पत्तियाँ
आकाश नीला और स्वच्छ होगा
नगर क्रेन के पट्टे में झूलता हुआ
हम मोड़ पर मिलेंगे और
एक दूसरे से ईर्ष्या करेंगे.
रात जब युद्ध एक गीत पंक्ति की तरह
प्रिय होगा हम वायलिन को
रोते हुए सुनेंगे
अपने टूटे संबंधों पर सोचेंगे
दुःखी होंगे.
Sunday, June 6, 2010
धूमिल की कविता
चोट करता है.
उनकी ये कविता मुझे हर बार नए मायने सिखाती है. इस कविता को मैंने हमेशा अपने
सामने रखा और मेरे समाज कार्य के करियर में जब भी मैंने समस्याओ को समझ कर
लोगो की मदद करने की कोशिश की तब ये कविता हमेशा गुरु की तरह सामने थी.
सिर्फ यही नहीं, धूमिल की न जाने ऐसी कितनी कविताये है.
अपने मित्र चन्दन के ब्लॉग में एक कविता पढ़ कर मुझे अचानक ये कविता याद आ गयी.
धूमिल की याद दिलाने के लिए चन्दन को धन्यवाद्!
कोशिश करूँगा पोस्ट करता रहू !
शब्द किस तरह कविता बनते है उसे देखो,
अक्षरों के बीच
गिरे हुए आदमी को पढो,
क्या तुमने सुना है
की ये लोहे की आवाज है,
या मिटटी में गिरे हुए खून का रंग ?
लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो ,
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुह में लगाम है .--- धूमिल
Wednesday, March 10, 2010
My name is Slumdog, and I am not a Millionaire!
A research project guided me to visit slums in Mumbai and I found myself in Bandra slums on 27th February 2010. This is a famous area because the child actors of Slumdog Millionaire are from the same locality. It was a time for reality check as well as value clarification for me. I think first time in my life I saw vertical slums and I wondered how anybody can stretch the legs inside. The ground floor or underground floors are in worst conditions which are filled with water every year during rainy season. There is a central pipe line which is the main road for slum dwellers and they live on both the sides of this.
You will think that it is a window which is actually the entrance of the room (hardly 5” X 6”) where Rafeeq lives with his 3 children. I somehow managed to enter into this room which is the whole life for them. The other window-cum-gate opens into a garbage field where plastic bags & stinking waste material is lying submerged into sewage water & excreta. To my damn surprise he is paying 2000 Rs as a rent for this small box which we call home.
Rafeeq lost his wife 12 years ago when she died in the same room struggling with anaemia & jaundice during pregnancy. He used to sell vada-pao few years ago till the day a speeding car hit him and he lost his leg; to make the matter worse he had to borrow a lot of money for amputation & medication. Now he is unemployed and the only source of income is his 12 years old son Taiyab who sells toys every evening roaming in the financial capital of India. Taiyab is studying in class 7th with the help of an NGO and he wants to become a Social Worker but he is extremely worried for his sister’s marriage who has crossed 19 now.
Drinking water is the biggest luxury for the slum dwellers as everyday people are fighting to get water from the rare water tap. All of the taps are situated very low and very often they are submerged into sewage water, but people have no choice and they dip their bottles to somehow trap the contaminated water to drink.
Another boy Anil from the Bandra slums recollects that a film director used to come to the slums and he offered many children to come to film studio for the test. “I was also in one of those kids but I was too scared to go to the film studio and I lost the chance. All those kids who went are now rich and famous. They are now in America and I am here” says Anil as he regrets and hopes that someday another director will come and he will be the chosen one. When Anil came to Delhi for a street children workshop he made a poster of his dream movie- Return of the Slumdog. I am scared to think about its possibilities in the present scenario but I am with him on this journey because I want to see all children like Anil getting what they deserve.
I have no idea how much money Slumdog Millionaire made and how much they invested into the development of slums from where the movie came out. May be they want to keep the subject alive. But our own Bollywood industry is also breaking records every time in earning money. Recently Ghazani & 3 idiots made record breaking collection and now My Name Is Khan is claiming to accumulate 1500 million already. Another Khan has grabbed 350 millions for just an advertisement. I have read news reports claiming that all big stars (including our Big B) are donating a lot of money for poor people but where is that so called Social Responsibility Effect which our cine stars claim by doing charity-cum-publicity? I heard that in some areas in Mumbai, people are paying around 30,000 per month just as a maintenance cost for their luxurious apartments. I would not expect them to jump from there but at least they can come out of their Bisleri bottles and see the creatures that live in their dumping yard. . Asking for help from them will be too much as they might have already satisfied their ego by getting rid of old cloths & utensils and making the day of their servant.
I came out of those slums but it bruised my heart somewhere. Sitting in my comfortable office now I am unable to complain about anything in my life. I think of Taiyab, Anil, Kajal and hundreds of children like them and hope that I would be able to bring some positive changes in their lives. But at times I feel so discouraged by my limitations and the indifferent attitude of all of us. Then I feel like a culprit and wish I could embrace all those children and cry out my apology- “Sorry dear, I knew you are in so much pain but I didn’t do anything for you. Please forgive me.”
--- bodhisatvavivek@gmail.com
Thursday, January 21, 2010
WHO KNOWS !?!
This is my first Blog, and the credit goes to my dear friend Mr. Kundan Pandey. I just signed up to comment on his blog and here i am, in a new world. It is fascinating and i should be thankful to Kundan so my first blog is my view on the movie 3 Idiots as a comment on Kundan's Blog.
In the Defence of Creativity!
Though i don’t claim to be a highly conversant fellow in cinema and literature but i am an average intelligent common man with some flare for creativity, and i trust myself.
The moment i finished watching “3-idiots” i was totally entertained by the movie. My reaction was partially influenced by the Lateral Thinking, John Holt & Multiple Intelligence Theory books which i am reading from past two months.
I must confess that you should rate the movie after coming out of the after-effect whether it is good or bad. I also don’t rely on the box office business because we cannot compare movies by the money they generate if we are talking about the art of cinema and value of the content. But i am not totally agreed with your views on the movie. I also found some lacunae in the movie but it is not so much as you mentioned. The reason it is huge hit lies somewhere in the areas what you mentioned but that is not all. It has a content which appeals and it has been presented like this for the first time. Some lecture type scenes and super dramas could have been avoided but the team of 3 idiots deserves appreciation. The message was clear and it was meant more for the mass, less for the critics (who are sometimes so honest to their job that they criticize just for the sake of it). And it did the job well. I don’t favor the movies that are richer in content & so complicated that the so called well informed intellectual viewer appreciates and the common man cannot dare to understand & express. Those classics have their place and i respect them but we need movies for the common man also.
Here i must clear that i also feel that 3-idiots could have been much better and there is always a great possibility of embedding a good message in a simple manner loved by all. But it doesn’t mean that we should condemn such a brilliant effort like this. I consider it as a sequel of TZP which was targeting school education and now 3 idiots has questioned our traditional approach to career choice & college education. And a simple middle class man can enjoy getting the tough message, it is enough.
Our educational system has to revive itself and focus on the Multiple Intelligences with unique character traits so that we can produce professionals who love their jobs not because they get money but because that is what they are meant to do. I don’t think it is an achievement that we are producing individuals who can adjust everywhere, in fact this is a tragedy for any young man who has to adjust & compromise with his talent. Call it Conditioning or Strategic Motivation, this is what happening from a long time and it should cease now. We had no choice but it doesn’t mean that we justify it by the jugglery of words; rather we should try to make a better pool of choices for the coming generation.
But I must appreciate you Dear Kundan that you can penetrate so deeply into this subject, the direction is a matter of disagreement but the effort is very impressive. But never forget that somebody said, “IF YOU DON'T THINK LIKE ME, THEN YOU ARE WRONG”.
I am still wondering !!!
Who knows !?!