"You have your way. I have my way. As for the right way, the correct way, and the only way, it does not exist."
Friedrich Nietzsche

Tuesday, September 14, 2010

‘कुछ और’ बन जाने का डर

कभी-कभी लगता है की कोई भी कहानी काल्पनिक नहीं होती है चाहे कैसी भी हो. इसीलिए अपनी खुद की कहानी भी किसी और के पास दिख जाती है और आश्चर्य होता है की रंग बदल कर मेरा ही चेहरा कितना अलग लगता है. किसी का चुटकुला किसी दूसरे के जीवन पर व्यंग्य होता है तो कही कोई भी हास्य अपना धड़ बदलते ही दुर्घटना बन जाता है. शक होता है की कही हर आदमी एक ही कहानी तो नहीं कह रहा है?

कुछ समय पहले मैं एक संस्था में युवाओ को इंग्लिश पढाया करता था, वहाँ और भी कोर्स थे रोजगार के लिए, कंप्यूटर डिज़ाइनिंग भी था जो मुझे भी बहुत पसंद था. उसे पढाता था सुब्रोतो, बहुत सीधा और सच्चा इंसान, और बहुत अच्छा दोस्त भी. थोड़ी बहुत जानकारी मुझे भी थी और ड्राइंग ठीक है मेरी तो जब भी समय मिले मैं वही होता था, खुद भी सीखता था और सुब्रोतो की मदद भी करता था. उस संस्था में अध्यापको के लिए बड़ी चुनौती ये भी थी की सभी छात्रों के मन में एक अच्छी छवि बनाये रखे और उन्हें हमेशा प्रोत्साहित करे जीवन में कुछ करने के लिए. चुनौती इसलिए थी क्योकि जादातर छात्र 15-25 वर्ष के थे, इतने तेज, बेबाक और हाजिर जवाब की पूछिए मत. मज़ाक का कोई मौका जाने नहीं देते थे और ये ख्याल रखना होता था की कही खुद का मज़ाक न बन जाये. अजब-गजब सवाल भी कर देते थे,
“सर, पर्सनैलिटी डेवेलोपमेंट वाली मैडम बालों को सलीके से रखने पर इतना पाठ पढ़ाती है, आमिर खान तो टीचर बना था ‘तारे ज़मीन पर’ में लेकिन उसने मुर्गे जैसे बाल कैसे रखे थे?”

एक दिन सुब्रोतो मेरे पास आया, बड़ा परेशान दिख रहा था.
मैंने कहा, “क्या हुआ बाबु मोशाय?”
“यार तुम्हारी मदद चहिये, क्लास बीच में छोड़ के आया हू, अभी चलो जरा.”
“बात क्या है, बताओ तो सही”
“अरे वो फोटोशोप की क्लास दे रहा हू, असाइनमेंट बनानी है उनको, एक लिपस्टिक बनाना है फोटोशोप का प्रयोग कर के”
“तो?”
“अरे तो मुझे पहले लिपस्टिक बनानी है बोर्ड पर उसके बाद वो लोग कॉपी करेंगे”
“तो बना दो न, इसमें कौन सी बड़ी बात है इसके लिए मेरी क्या जरुरत है?”
“अरे यार मेरा ड्राइंग उतना सही नहीं है, चलो तुम बना दो”
“देख रहे हो रिपोर्ट लिख रहा हू, थोडा गलत ही बना दो यार, उनको पता है तुम पिकासो नहीं हो”
उस समय सुब्रोतो ने परेशानी और गुस्से से ऐसे देखा की मुझे लगा मामला गंभीर है. फिर झुझलाकर बोला, “अरे इतना आसान होता तो क्यों आता, तुम समझ नहीं रहे हो जरा किनारे आओ बताता हूँ”
वहा बैठे बाकी लोग भी कौतुहल से देखने लगे, मैं भी समझ नहीं पा रहा था लेकिन दूसरे कमरे में चला आया सुब्रोतो के साथ.
“हाँ, अब तो बताओ”
“अरे मैं कई बार कोशिश कर चुका हू, लेकिन साला हर बार ‘कुछ और’ बन जा रहा है”
“क्या बन जा रहा है?”
“अरे ‘वो’ बन जा रहा है”
अब मेरे सब्र का बांध भी टूटने लगा.
“अबे क्या बोंल रहे हो यार, क्या बन जा रहा है? ‘वो’ क्या ?“
“अरे लिपस्टिक बनाते बनाते क्या बन सकता है?”
“अबे क्या बन सकता है, साले क्यों पहेली बुझा रहे हो?”
“अरे वही तो बता रहा हू इतनी देर से की ‘कुछ और’ बन जा रहा है, ‘वो’ बन जा रहा है”
मैं अपनी आवाज नीची नहीं रख पाया इस बार और जोर से बोला,
“अबे साले बोंल के क्यों नहीं बताते, क्या बन जा रहा है?”
और फिर सुब्रोतो मुझसे भी जादा तेज गुस्से में बोला,
“** बन जा रहा है”
कमरे में थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया. पहले मैं स्तब्ध रह गया और उसके बाद इतनी जोर की हँसी आई की लोट-पोट हो गया और दो मिनट तक हँसता ही रहा.
“साले अब हँसते ही रहोगे या मदद भी करोगे?”
“अबे तुमको बोलना था न की मैं इसे नहीं बनाऊंगा बोर्ड पर, तुम लोग कॉपी में बना लो जैसे मर्जी”
“अरे जब मैं बना रहा था तो उनमे से कुछ हँसने लगे तब मैंने जल्दी से मिटा दिया, अब बिना बनवाए नहीं मानेगे”
“अच्छा मुझे कोशिश कर के देखने दो”
अब तो मुझे भी डर लगने लगा. समस्या गंभीर थी. मैंने वही एक कागज पर कोशिश की. लेकिन ये ‘कुछ और’ बन जाने का डर इतना जादा हावी हो गया की मैं जितनी बार बनाऊ गलत हो जाये. और सुब्रोतो तपाक से बोले,
“ देखो देखो तुम भी ‘वही’ बना रहे हो, मेरे ऊपर हँस रहे थे, अब बताओ”
“अबे दिमाग का दही मत करो, कोशिश करने दो, तुमने ही बोंल-बोंल के भर दिया है साले मेरी गलती नहीं है”

लेकिन बहुत कोशिश करने के बाद भी मेरे अंदर इतना आत्मविश्वास नहीं आया की मैं बोर्ड पर लिपस्टिक बना सकू. हम दोनों ‘कुछ और’ बन जाने का जोखिम नहीं उठा सके और छात्रों के लाख बोलने के बावजूद उनको सुब्रोतो ने किसी तरह डाट-डपट के दूसरा कोई असाइनमेंट कराया. छात्र काफी मायूस हुए.

काफी दिनों बाद अचानक फिर से ये बात याद आई तो एहसास हुआ की ये ‘कुछ और’ बन जाने का डर तो हमेशा से ही मेरे पीछे रहा है. मैं ही नहीं मेरे सारे दोस्त इसी से लड़ते रहे है और आज भी संघर्ष कर रहे है की कही जो बनना चाहते थे वो न बन के ‘कुछ और’ न बन जाये. हम में से बहुत लोगो ने इस डर के कारण बहुत दिनों तक रोक के रखा अपने आप को, और कोई कदम नहीं उठाया. लेकिन जब देर सवेर कुछ मित्रों ने हिम्मत दिखाई तो सफलता मिली और एहसास हुआ की ये डर किसी भी सपने से जादा ताकतवर नहीं हो सकता है.

कल मैंने सुब्रोतो को फोन किया और बोला,
“सुब्रोतो, मुझे लगता है उस दिन मैं अगर मैं कोशिश करता तो बोर्ड पर ‘कुछ और’ नहीं बनता. वो बनता जो मैं बनाना चाहता था”