"You have your way. I have my way. As for the right way, the correct way, and the only way, it does not exist."
Friedrich Nietzsche

Friday, April 30, 2021

मुझसे पूछ के मिली होतीं तो मैं अपने चेहरे पर लगवाता दुनिया की सबसे उदास आँखें, उन सब की तरफ से भी रो सकता जिन्हें मोहलत नहीं, सहूलियत नहीं ठहर कर अपने घाव देखने की। हलक में अटकी हुई अपनी कहानियां हमारे कान बंद कर देती हैं, हम नहीं सुन पाते किसी की काली स्लेट को चमकीले रंगों से कितनी चोट लगती है। पूछ कर आँखों में झांक लो चमक जाती है हल्की सी नमी, और कितने बरस हो गए किसी ने कस कर गले नहीं लगाया, सब पता चल जाता है। बस ठहरना है खामोशी से। घाव को पता होता है दूसरे घाव का पता, एक को मरहम दो तो दूसरे तक रिस जाएगा अपने आप वहाँ तक जाने का अब कोई और रास्ता नहीं। दुःख की स्याही सब एकरंगी, अपना-पराया कम-ज्यादा सब बेमानी, ये जान लेंगे हम जिस दिन, हमें चिट्ठियां लिखनी आ जाएंगी। तूफान के उस पार पहुँच सिर्फ कुनबों के शरीर मत गिनना, क्योकि जब देह गिरती रहती है आग में, इंसान के इंसान बने रहने की लड़ाई भी चलती है। सबकुछ नहीं बचेगा वैसा ही मगर आईने बचे रहेंगे, उनकी याददाश्त परेशान करेगी और मुझे यकीन है आने वाली नस्लें एक दिन लिखेंगी की जश्न के नशे में हमनें क्या सींचा था? और त्रासदी में बदहवास हम क्या बचा पाए? ~ #नोट्स बोधिसत्व विवेक 30.04.2021

Sunday, October 13, 2019

मैं हमेशा से बनना चाहता था,
तुम्हारे लिए
एक बड़ा सा पेड़।
इतना बड़ा की
तुम्हारी हर परेशानी
छोटी लगने लगे.
जब तुम्हे धूप लगे
मैं छाँव दे दूं,
भूख पर
चुपके से मीठे फल गिरा दूँ,
और प्यास पर
पत्तो में संजोई ओस.
सुना दूँ सबसे मीठी लोरी
गुजरती हुई हवाओं के मार्फ़त,
और सुला दूं
अपनी शाखों के झूले में,
ठीक उस कहानी के बाद
जिसमें मैं जिंदगी को
खूबसूरत सपने का सच होना
कह देता हूँ।

मैं जो चाहता हूँ,
वो हमेशा नहीँ होता
बिल्कुल वैसा ही,
और ये न होना
मेरा वजूद है तब तक,
जब तक तुम भूल न जाओ
ये कविता !

- विवेक 21.08.2018

Thursday, August 15, 2019

दुकान पर मिठाई खरीदते वक़्त,
मेरी तरह शायद सब यही प्रार्थना कर रहे थे,
की खोया नकली तो होगा ही,
बस ज़्यादा जहरीला न हो,
वैसे भी ज्यादा खरीद न पाएंगे.
वापस लौटते वक़्त मख्खियों से
बचाते हुए, कीचड़ से बचते हुए,
घर पहुँच जाना,
आज की उपलब्धि है.
मजदूरी के दो दिनों के बीच,
फँसा हुआ ये दिन,
त्योहार कहे जाने के लिए तड़प रहा है,
लेकिन हम इस झाँसे में नहीं आयेंगे,
हमें गणित आता है,
तनख्वाह आने के पहले,
हर रोज की लक्ष्मण रेखा,
हमनें खींच रखी है,
खुशी से झूमते वक़्त
हमारा पैर
गलती से भी इसके बाहर न जायेगा.
हम उल्टा त्योहार को ललचा देंगे,
ऐसा स्वांग रचायेंगे की
सबको यकीन हो जाये,
हमने चतुराई से
जीना सीख लिया है !!!

- विवेक (15.08.19)

Saturday, April 27, 2019

किसी भी किताब का ज़िन्दगी में आना,
एक पुराने दोस्त का वापस मिलना है,
वो जानता है मेरे घर में
कौन से रस्ते से ताज़ा हवा आ सकती है,
और कौन से रस्ते से धूप !

- विवेक (27.04.19)

Wednesday, April 24, 2019

ताज़्ज़ुब है,
इतना वक़्त मैंने
खुद को सही साबित करने में क्यो लिया,
जबकी बीच बहस छोड़ कर
मैं दोपहर की नींद ले सकता था !

बहुत उदास हूँ
ये सोचकर भी,
की इतनी स्याही
नसीहतों को रंगने में क्यो खर्च की,
जबकी उससे
लिख सकता था खूबसूरत कवितायें
दुनिया के हर बच्चे के लिए !

इसलिये,
मैं अब हर दोपहर
सोना चाहता हूँ,
हर रात
लिखना चाहता हूँ !

- विवेक (24.04.19)

Sunday, March 31, 2019

मुझे बताया नहीं गया
मुझे पता चला
बहुत धीरे-धीरे
बहुत देर से
कि मैं अकेला नहीं हूँ!

मैं लिखता रहा रात भर
बुरी खबरें
और सुबह नहाते वक़्त
खुद को तैयार करता रहा
किसी एक खबर के लिए,
फिर देर रात खुश होता रहा
कि सब खबरें झूठी थी!
सफर पर निकलते वक़्त
तय करता रहा दुर्घटना का समय,
शरीर के हर इशारे को
दिया सबसे भयंकर नाम,
सोचता रहा
कौन रोयेगा मेरा मातम और कैसे?
और ऐसे नाटक लिखता रहा
जिसमें धड़कने आँसुओ हार जाती हैं।

मैंने लगाए सबसे दुःखद कयास,
जब घर पर किसी ने फोन न उठाया,
और खुश होते वक़्त डर के मारे
बड़ी सावधानी रखी
कि दुःखी होना न भूल जाऊ।
कोई खूबसूरत चीज, चेहरा, पल
नहीं लिया दोनों हाँथो में एक साथ,
और सबसे अच्छी तस्वीरों को
बचाता रहा खुद से,
जैसे आने से पहले ही ख़त्म
हो जाएगा सब कुछ,
इसलिए मेरे सबसे
उम्मीद भरे सपनो ने
परेशान किया सारी रात।

मैंने मदद माँगी
तो मुझसे कहा गया
की मैं गढ्ढे में गिरा हुआ हूँ,
मुझे बाहर आना चाहिए
जहाँ बड़ी रोशनी है,
ये सुनकर
मैंने इंतज़ार किया
मगर कोई सीढ़ी, कोई रस्सी
नहीँ आयी,
क्योकि सारी आवाज़े तो
वहीं साथ बैठी थीं।

मैंने दीवार पर लिख रखा था कि
'एक दिन मरेंगे हम सब, लेकिन
उससे पहले हर दिन जिएंगे'
और मैं इंतज़ार में ही रह गया
की कोई मुझे छूकर
यकीन दिलाये ये सब।

अधखुली आंखों से देखता हूँ,
मैं एक भीड़ में हूँ,
भीड़ घुप्प अंधेरे में है,
सब अकेले हैं,
इतने चिपके हुए हैं की
जगह ही नहीं
एक दूसरे को छूने की,
सबके पास वही मरहम है,
सबके पास वही इंतज़ार है,
ऊपर से आने वाली
किसी सीढ़ी का, किसी रस्सी का,
किसी रोशनी का !

- विवेक (31.03.19)

Friday, March 22, 2019

परदेसी हो,
तो ध्यान रखना.
घर जाके
अपना सामान मत फैला देना
चारो तरफ,
अपने आने की खबर की तरह.

घर की जमीन
बड़ी उपजाऊ होती है.
दो दिन में ही हर चीज
जड़ जमा लेती है,
उग आते है
छोटी-छोटी पत्तियां और फूल.
फिर लौटते वक़्त
आसान नहीं होता
उजाड़ना ये बागीचा,
और घर हाथ पकड़ कर रोकता है
हर पौधे को.

हाथ छुड़ा कर
वापस लौटने का ये अफ़सोस,
परत दर परत इकठ्ठा हो रहा है,

इतनी परतों के नीचे
कितनी सांसे ले पाओगे?

- विवेक (22.03.19)

Monday, March 11, 2019

Wednesday, November 28, 2018

"तुम पिता थे"


तुम्हारे बच्चे भूखे थे,
और उन्हें यक़ीन था
तुम पर,
लेकिन जब तुम
उनके पैसों से,
रोटी की जगह,
अपने ख़ुदा के लिए
फूल खरीद लाये,
तब उन मासूमों ने आँखों से
जो भीगें हुए सवाल दागे,
उससे बहुत बड़ी दरारें पड़ गयीं
तुम्हारे मंदिरों में,
देखो उन दरारों को,
देर मत करो,
शायद उनमें अब भी
इतनी जगह हो,
कि तुम्हारी आत्मा निकल सके बाहर,
और आज़ाद हो जाये !!!

- विवेक (26.11.18)