स्कूल छोड़ के पहली फिल्म देखी थी ‘कृष्णा’, क्योकि मेरा दोस्त सुनील शेट्टी का जबरदस्त फैन था. मैंने शुरू में बहुत मना किया की मैं नहीं जाऊंगा लेकिन फिर उसने अपनी कसम दे दी और कहा की सिर्फ मेरी वजह से उसका ये सपना पूरा नहीं हो पा रहा है. मैं इतना बर्दाश्त नहीं कर पाया और फिल्म बर्दाश्त करने चला गया उसके साथ छवीमहल में १५ रूपये का टिकट लेके.
उसने ज़िन्दगी में पहली बार सिनेमा-हाल में कदम रखा था और जब इंटरवल में हम बाहर आये तो मुझसे बोला,
“ठीक तो थी, तुम झुठ्ठे नरक मचाये थे, चलो जल्दी चला जाये अब पापा ऑफिस से निकल गए होंगे”
“कहाँ चलें, पूरा नहीं देखोगे क्या?”
“ख़त्म नहीं हुई का ? इ सब लोग कहाँ जा रहे हैं”
“अबे बुद्धि के बलिहारी ! इंटरवल हुआ हैं अभी, जंगल से आये हो का?”
इसके बाद मैंने उसे विस्तार से समझाया और उसने फिर कसम दी की ये बात मैं स्कूल में किसी को नहीं बताऊंगा.
उस दिन के बाद आज बता रहा हूँ. आज विमल के लेख में इसी तरह की बातें पढ़ के याद आ गया.
मुझे याद हैं बचपन में पूरे परिवार के साथ नटराज टाकीज़ में ‘वतन के रखवाले’ देखी थी और बहुत दिनों तक मिथुन का वो सीन याद करता रहा जिसमे वो दीवार पे छिपकली की तरह चढ़ जाता है. उसके बहुत दिनों बाद पापा ने मुझे ‘जुरासिक पार्क’ दिखाई थी. मेरे पिताजी आज भी बहुत शान से बताते हैं की उन्होंने फिल्मिस्तान टाकीज़ में लगने वाली हर फिल्म देखी अपने ज़माने में. सिनेमा और संगीत का चस्का उन्ही का उपहार है मेरे लिए, किताबें से भी दोस्ती उन्होंने ही करायी और आज उसी के कारण ज़िन्दगी के बड़े खुबसूरत एहसास हुए हैं.
मेरे दोस्त के पिताजी भी बड़े फिल्मबाज़ थे अपने ज़माने के, मगर बेटे के लिए अलग मापदंड थे और इसके कारण बेटा बहुत समय तक सिनेमा में अनपढ़ रहा.
वक़्त बदल गया है, केबल टी.वी. का ज़माना है...लेकिन सिनेमा-साक्षर होना उतना ही जरूरी है जितना किताबे पढना. ज़िन्दगी में जो कुछ भी हासिल किया उसमे किताबों और फिल्मो का बहुत बड़ा योगदान हैं और ये उपहार हर माँ-बाप को देना चाहिए अपने बच्चो को...उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए....लेकिन नहीं भी किया तो कोई बात नहीं....स्कूल तो है ही, दोस्त तो तैयार ही हैं....सिनेमा तो ज़िन्दगी का हिस्सा बनेगा ही !!!!!
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