Friday, April 30, 2021

मुझसे पूछ के मिली होतीं तो मैं अपने चेहरे पर लगवाता दुनिया की सबसे उदास आँखें, उन सब की तरफ से भी रो सकता जिन्हें मोहलत नहीं, सहूलियत नहीं ठहर कर अपने घाव देखने की। हलक में अटकी हुई अपनी कहानियां हमारे कान बंद कर देती हैं, हम नहीं सुन पाते किसी की काली स्लेट को चमकीले रंगों से कितनी चोट लगती है। पूछ कर आँखों में झांक लो चमक जाती है हल्की सी नमी, और कितने बरस हो गए किसी ने कस कर गले नहीं लगाया, सब पता चल जाता है। बस ठहरना है खामोशी से। घाव को पता होता है दूसरे घाव का पता, एक को मरहम दो तो दूसरे तक रिस जाएगा अपने आप वहाँ तक जाने का अब कोई और रास्ता नहीं। दुःख की स्याही सब एकरंगी, अपना-पराया कम-ज्यादा सब बेमानी, ये जान लेंगे हम जिस दिन, हमें चिट्ठियां लिखनी आ जाएंगी। तूफान के उस पार पहुँच सिर्फ कुनबों के शरीर मत गिनना, क्योकि जब देह गिरती रहती है आग में, इंसान के इंसान बने रहने की लड़ाई भी चलती है। सबकुछ नहीं बचेगा वैसा ही मगर आईने बचे रहेंगे, उनकी याददाश्त परेशान करेगी और मुझे यकीन है आने वाली नस्लें एक दिन लिखेंगी की जश्न के नशे में हमनें क्या सींचा था? और त्रासदी में बदहवास हम क्या बचा पाए? ~ #नोट्स बोधिसत्व विवेक 30.04.2021

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