चमकीले शहर में
जब कोई सरकारी बच्चा
अंग्रेजी बोल लेता है
तो लोग कहते है
वक्त बदल गया है !
मेरे गांव में भी वक्त बदला जरुर
मगर इत्तला किए बगैर.
कम से कम उनको तो बिलकुल खबर नहीं
जिन्हें मैं जानता हूँ.
पुल के नीचे पंचर बनाने वाला
अब भी एक रूपये के लिए
उतनी ही जिरह करता है
पर कॉलर नहीं पकड़ता
अब पैर पकड़ लेता है
और उसका चेहरा
माथे की शिकन में रहता है.
मास्टरजी अब भी
घर-घर जा के ट्यूशन पढाते हैं
लेकिन एल. आई. सी. भी कराते हैं
उनकी इज्ज़त करने वाले सारे लोग
अब उनसे कतराते हैं.
केबल वाले भईया अब भी
उतने ही प्यार से किराया मांगते है
मगर हँसते नहीं
तारीफ सुनने के लिए रुकते भी नहीं.
पी. सी. ओ. वाले अंकल
आज भी दुकान की छत नहीं बनवा पाए
मगर अब मोबाईल रिचार्ज करते हैं
और हर रविवार आंटी से कहते हैं
“नैनो खरीदी जा सकती हैं”
आज भी वहाँ सबको यकीन है
की गणेश भगवान ने
उनके हाथों से दूध पिया था
मगर अब राम-नवमी कों
देवी बनने वाली लड़कियां
किसी भी गरीब बीमारी से मर जाती हैं.
मेरे बचपन के सबसे बदतमीज़ दोस्त
आज भी मेरे सबसे करीब हैं
लेकिन अब वो मुझे गाली नहीं देते
ऐसी इज्ज़त दे देते हैं
जो बर्दाश्त नहीं होती.
मेरे घर की छत से आसमान
अब भी उतना ही पास है
लेकिन न जाने क्यों
अब कोई पतंग कट के नहीं आती.
शायद वहाँ किसी कों नहीं पता
की वक्त बदल गया है
इसलिए दो रंग का नया सिक्का देख के
सबको वहम होता है
की मरने से पहले
बीमारी का नाम पता चल जाने से
दर्द कम होता है.
- विवेक