Monday, November 15, 2010

सुर-असुर !



सही कहा तुमने,
मैं जन्म से हिंदू हूँ !

लेकिन कर्म से केवल मनुष्य,
तुम्हारे सारे रिवाज़
मेरी परिभाषा से अलग हैं.
और न जाने क्यों
ऐसा लगता है
की मैं बेहतर हूँ.

मंदिर जाता हूँ
वास्तुकला की प्रशंसा करता हूँ
भक्तिभाव और घंटे की ध्वनि से
परहेज भी नहीं परन्तु
श्रद्धा और आस्था का भ्रम भी नहीं.
खुद को कुचलती भीड़ पर हँसता हूँ
जी भर के कोसता हूँ.

रात्रि जागरण कर के
रामचरित मानस गा लेता हूँ.
लोग कहते है-
“बड़ा धार्मिक लड़का है”
लेकिन मैं नवरात्री में अंडे खा लेता हूँ.

चेखव, कृष्ण, विवेकानंद,
मार्क्स, गाँधी और ग़ालिब.
मेरे कमरे में सबके लिए जगह है.
लेकिन ‘कल्पना के किसी पुत्र’ के लिए
नहीं है दिल का कोई भी कोना.
अहमियत नहीं रखता मेरे लिए
किसी भी जगह
किसी भी मंदिर या मस्जिद का
होना या न होना.

हर फुर्सत में दोस्तों के साथ
गंगा की सीढियों पर सोता हूँ
चौराहों पर तकलीफ ढूढता हूँ
और बिना वजह रोता हूँ
शराब पीने के बाद
बिना समझे
किसी भी मुद्दे पर
कुछ भी बोंल देता हूँ.
परम, पूज्य, पुण्य, परमात्मा
सबके ढक्कन खोल देता हूँ.

फिर भी
सबको मिला के रखता हूँ.
हर रूप में ढल जाता हूँ
क्योकि
सही गलत का जादा फर्क नहीं करता
नैतिकता बड़ी लचीली है
और जरुरत के वक्त
नीयत हमेशा गीली है.

मुझे लगता है
अगर मैं जन्म से मुसलमान होता,
ईसाई होता या कुछ और,
या कुछ भी नहीं होता
तो भी ऐसा ही होता जैसा हूँ.
और तुम भी हमेशा तुम ही होते
हर परदे के पीछे.

हो सकता है हम दोनों
समाजीकरण की
सफलता और असफलता
के प्रयोग हों
इसलिए कभी कभी रौशनी में
तुम भी मुझे
सताते हुए कम
सताए हुए जादा दिखते हो

तुम भी इतने बुरे नहीं हो
अक्सर मुझे पसंद भी हो
लेकिन फिर भी
न जाने क्यों
ऐसा लगता है
की मैं ही बेहतर हूँ.

2 comments:

  1. वन्डर्फूल... "तो भी ऐसा ही होता जैसा हूँ/और तुम भी हमेसा तुम ही होते/हर परदे के पीछे..." शानदार लाइन है...

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