मैं हमेशा से बनना चाहता था,
तुम्हारे लिए
एक बड़ा सा पेड़।
इतना बड़ा की
तुम्हारी हर परेशानी
छोटी लगने लगे.
जब तुम्हे धूप लगे
मैं छाँव दे दूं,
भूख पर
चुपके से मीठे फल गिरा दूँ,
और प्यास पर
पत्तो में संजोई ओस.
सुना दूँ सबसे मीठी लोरी
गुजरती हुई हवाओं के मार्फ़त,
और सुला दूं
अपनी शाखों के झूले में,
ठीक उस कहानी के बाद
जिसमें मैं जिंदगी को
खूबसूरत सपने का सच होना
कह देता हूँ।
मैं जो चाहता हूँ,
वो हमेशा नहीँ होता
बिल्कुल वैसा ही,
और ये न होना
मेरा वजूद है तब तक,
जब तक तुम भूल न जाओ
ये कविता !
- विवेक 21.08.2018
Sunday, October 13, 2019
Thursday, August 15, 2019
दुकान पर मिठाई खरीदते वक़्त,
मेरी तरह शायद सब यही प्रार्थना कर रहे थे,
की खोया नकली तो होगा ही,
बस ज़्यादा जहरीला न हो,
वैसे भी ज्यादा खरीद न पाएंगे.
वापस लौटते वक़्त मख्खियों से
बचाते हुए, कीचड़ से बचते हुए,
घर पहुँच जाना,
आज की उपलब्धि है.
मजदूरी के दो दिनों के बीच,
फँसा हुआ ये दिन,
त्योहार कहे जाने के लिए तड़प रहा है,
लेकिन हम इस झाँसे में नहीं आयेंगे,
हमें गणित आता है,
तनख्वाह आने के पहले,
हर रोज की लक्ष्मण रेखा,
हमनें खींच रखी है,
खुशी से झूमते वक़्त
हमारा पैर
गलती से भी इसके बाहर न जायेगा.
हम उल्टा त्योहार को ललचा देंगे,
ऐसा स्वांग रचायेंगे की
सबको यकीन हो जाये,
हमने चतुराई से
जीना सीख लिया है !!!
- विवेक (15.08.19)
मेरी तरह शायद सब यही प्रार्थना कर रहे थे,
की खोया नकली तो होगा ही,
बस ज़्यादा जहरीला न हो,
वैसे भी ज्यादा खरीद न पाएंगे.
वापस लौटते वक़्त मख्खियों से
बचाते हुए, कीचड़ से बचते हुए,
घर पहुँच जाना,
आज की उपलब्धि है.
मजदूरी के दो दिनों के बीच,
फँसा हुआ ये दिन,
त्योहार कहे जाने के लिए तड़प रहा है,
लेकिन हम इस झाँसे में नहीं आयेंगे,
हमें गणित आता है,
तनख्वाह आने के पहले,
हर रोज की लक्ष्मण रेखा,
हमनें खींच रखी है,
खुशी से झूमते वक़्त
हमारा पैर
गलती से भी इसके बाहर न जायेगा.
हम उल्टा त्योहार को ललचा देंगे,
ऐसा स्वांग रचायेंगे की
सबको यकीन हो जाये,
हमने चतुराई से
जीना सीख लिया है !!!
- विवेक (15.08.19)
Saturday, April 27, 2019
Wednesday, April 24, 2019
ताज़्ज़ुब है,
इतना वक़्त मैंने
खुद को सही साबित करने में क्यो लिया,
जबकी बीच बहस छोड़ कर
मैं दोपहर की नींद ले सकता था !
बहुत उदास हूँ
ये सोचकर भी,
की इतनी स्याही
नसीहतों को रंगने में क्यो खर्च की,
जबकी उससे
लिख सकता था खूबसूरत कवितायें
दुनिया के हर बच्चे के लिए !
इसलिये,
मैं अब हर दोपहर
सोना चाहता हूँ,
हर रात
लिखना चाहता हूँ !
- विवेक (24.04.19)
इतना वक़्त मैंने
खुद को सही साबित करने में क्यो लिया,
जबकी बीच बहस छोड़ कर
मैं दोपहर की नींद ले सकता था !
बहुत उदास हूँ
ये सोचकर भी,
की इतनी स्याही
नसीहतों को रंगने में क्यो खर्च की,
जबकी उससे
लिख सकता था खूबसूरत कवितायें
दुनिया के हर बच्चे के लिए !
इसलिये,
मैं अब हर दोपहर
सोना चाहता हूँ,
हर रात
लिखना चाहता हूँ !
- विवेक (24.04.19)
Sunday, March 31, 2019
मुझे बताया नहीं गया
मुझे पता चला
बहुत धीरे-धीरे
बहुत देर से
कि मैं अकेला नहीं हूँ!
मैं लिखता रहा रात भर
बुरी खबरें
और सुबह नहाते वक़्त
खुद को तैयार करता रहा
किसी एक खबर के लिए,
फिर देर रात खुश होता रहा
कि सब खबरें झूठी थी!
सफर पर निकलते वक़्त
तय करता रहा दुर्घटना का समय,
शरीर के हर इशारे को
दिया सबसे भयंकर नाम,
सोचता रहा
कौन रोयेगा मेरा मातम और कैसे?
और ऐसे नाटक लिखता रहा
जिसमें धड़कने आँसुओ हार जाती हैं।
मैंने लगाए सबसे दुःखद कयास,
जब घर पर किसी ने फोन न उठाया,
और खुश होते वक़्त डर के मारे
बड़ी सावधानी रखी
कि दुःखी होना न भूल जाऊ।
कोई खूबसूरत चीज, चेहरा, पल
नहीं लिया दोनों हाँथो में एक साथ,
और सबसे अच्छी तस्वीरों को
बचाता रहा खुद से,
जैसे आने से पहले ही ख़त्म
हो जाएगा सब कुछ,
इसलिए मेरे सबसे
उम्मीद भरे सपनो ने
परेशान किया सारी रात।
मैंने मदद माँगी
तो मुझसे कहा गया
की मैं गढ्ढे में गिरा हुआ हूँ,
मुझे बाहर आना चाहिए
जहाँ बड़ी रोशनी है,
ये सुनकर
मैंने इंतज़ार किया
मगर कोई सीढ़ी, कोई रस्सी
नहीँ आयी,
क्योकि सारी आवाज़े तो
वहीं साथ बैठी थीं।
मैंने दीवार पर लिख रखा था कि
'एक दिन मरेंगे हम सब, लेकिन
उससे पहले हर दिन जिएंगे'
और मैं इंतज़ार में ही रह गया
की कोई मुझे छूकर
यकीन दिलाये ये सब।
अधखुली आंखों से देखता हूँ,
मैं एक भीड़ में हूँ,
भीड़ घुप्प अंधेरे में है,
सब अकेले हैं,
इतने चिपके हुए हैं की
जगह ही नहीं
एक दूसरे को छूने की,
सबके पास वही मरहम है,
सबके पास वही इंतज़ार है,
ऊपर से आने वाली
किसी सीढ़ी का, किसी रस्सी का,
किसी रोशनी का !
- विवेक (31.03.19)
मुझे पता चला
बहुत धीरे-धीरे
बहुत देर से
कि मैं अकेला नहीं हूँ!
मैं लिखता रहा रात भर
बुरी खबरें
और सुबह नहाते वक़्त
खुद को तैयार करता रहा
किसी एक खबर के लिए,
फिर देर रात खुश होता रहा
कि सब खबरें झूठी थी!
सफर पर निकलते वक़्त
तय करता रहा दुर्घटना का समय,
शरीर के हर इशारे को
दिया सबसे भयंकर नाम,
सोचता रहा
कौन रोयेगा मेरा मातम और कैसे?
और ऐसे नाटक लिखता रहा
जिसमें धड़कने आँसुओ हार जाती हैं।
मैंने लगाए सबसे दुःखद कयास,
जब घर पर किसी ने फोन न उठाया,
और खुश होते वक़्त डर के मारे
बड़ी सावधानी रखी
कि दुःखी होना न भूल जाऊ।
कोई खूबसूरत चीज, चेहरा, पल
नहीं लिया दोनों हाँथो में एक साथ,
और सबसे अच्छी तस्वीरों को
बचाता रहा खुद से,
जैसे आने से पहले ही ख़त्म
हो जाएगा सब कुछ,
इसलिए मेरे सबसे
उम्मीद भरे सपनो ने
परेशान किया सारी रात।
मैंने मदद माँगी
तो मुझसे कहा गया
की मैं गढ्ढे में गिरा हुआ हूँ,
मुझे बाहर आना चाहिए
जहाँ बड़ी रोशनी है,
ये सुनकर
मैंने इंतज़ार किया
मगर कोई सीढ़ी, कोई रस्सी
नहीँ आयी,
क्योकि सारी आवाज़े तो
वहीं साथ बैठी थीं।
मैंने दीवार पर लिख रखा था कि
'एक दिन मरेंगे हम सब, लेकिन
उससे पहले हर दिन जिएंगे'
और मैं इंतज़ार में ही रह गया
की कोई मुझे छूकर
यकीन दिलाये ये सब।
अधखुली आंखों से देखता हूँ,
मैं एक भीड़ में हूँ,
भीड़ घुप्प अंधेरे में है,
सब अकेले हैं,
इतने चिपके हुए हैं की
जगह ही नहीं
एक दूसरे को छूने की,
सबके पास वही मरहम है,
सबके पास वही इंतज़ार है,
ऊपर से आने वाली
किसी सीढ़ी का, किसी रस्सी का,
किसी रोशनी का !
- विवेक (31.03.19)
Friday, March 22, 2019
परदेसी हो,
तो ध्यान रखना.
घर जाके
अपना सामान मत फैला देना
चारो तरफ,
अपने आने की खबर की तरह.
घर की जमीन
बड़ी उपजाऊ होती है.
दो दिन में ही हर चीज
जड़ जमा लेती है,
उग आते है
छोटी-छोटी पत्तियां और फूल.
फिर लौटते वक़्त
आसान नहीं होता
उजाड़ना ये बागीचा,
और घर हाथ पकड़ कर रोकता है
हर पौधे को.
हाथ छुड़ा कर
वापस लौटने का ये अफ़सोस,
परत दर परत इकठ्ठा हो रहा है,
इतनी परतों के नीचे
कितनी सांसे ले पाओगे?
- विवेक (22.03.19)
तो ध्यान रखना.
घर जाके
अपना सामान मत फैला देना
चारो तरफ,
अपने आने की खबर की तरह.
घर की जमीन
बड़ी उपजाऊ होती है.
दो दिन में ही हर चीज
जड़ जमा लेती है,
उग आते है
छोटी-छोटी पत्तियां और फूल.
फिर लौटते वक़्त
आसान नहीं होता
उजाड़ना ये बागीचा,
और घर हाथ पकड़ कर रोकता है
हर पौधे को.
हाथ छुड़ा कर
वापस लौटने का ये अफ़सोस,
परत दर परत इकठ्ठा हो रहा है,
इतनी परतों के नीचे
कितनी सांसे ले पाओगे?
- विवेक (22.03.19)