Tuesday, August 22, 2017

ज़िन्दगी कुछ कह रही थी


एक दिन जब रात की छत टिमटिमा कर गा रही थी.
चाँद की हल्की सी आहट बादलों से आ रही थी.
गुनगुनाती याद उसकी चांदनी पर बह रही थी.
उस घड़ी उस वक़्त शायद ज़िन्दगी कुछ कह रही थी.

एक दिन जब मेरा कमरा सिर्फ मुझको सुन रहा था.
एक झरोखा कोई सपना धूप के संग बुन रहा था.
दो परिंदों की ठिठोली खिडकियों पे रह रही थी.
उस घड़ी उस वक़्त शायद ज़िन्दगी कुछ कह रही थी.

एक दिन जब चार आँखे एक आंसू रो रहीं थी.
खूबसूरत थी उदासी मुस्कुराहट सो रही थी.
रौशनी की हर ईमारत जब क्षितिज पर ढह रही थी.
उस घड़ी उस वक़्त शायद ज़िन्दगी कुछ कह रही थी.

- विवेक (२००१)

Sunday, August 13, 2017

आखिरी पन्ने पे जाके मिला है पहला सबक,
ख्वाहिशे बोने पे अफ़सोस के फूल आते हैं.

घर पे वापस बुला ले कोई इसलिए हर बार,
अपनी कोई चीज़ रख देते हैं, भूल आते हैं.

शहर में आना ही इक जुर्म है इतना गहरा,
कोई गुनाह करे, हम क़ुबूल आते हैं.

रहनुमाओं से सबक सोच-समझ के लेना,
एक ही रंग में साजिश और उसूल आते हैं.

- विवेक
१३.०८.२०१७